अटलप्रवाह ये कविता अटलजी को आदरांजली लिखने के प्रयास में बन गयी। गहरे शोक की इन भावनाओं लिखकर मैं शायद ठीक से समझ पाऊं इसलिए ये प्रयास। मैंने जो लिखने की कोशिश की है वह मेरी निजी भावनाएं हैं चाहे वह कविता 'अटलप्रवाह' हो या ये आलेख। मैंने नब्बे के दशक से राजनैतिक समाचारों में दिलचस्पी लेना शुरू किया हालांकि मुझे तब बहुत कुछ समझ में नहीं आता था। तबसे अटलजी के बारे में जो पढ़ा, सुना और समझने में आया उस आधार पर मैं अपनी भावनाएं लिख रही हूं।
प्रतिमा स्रोत: विकिपीडिया
स्कूल के दिनों की बात है। एक बार मेरी दोस्त ने मुझे उनके पर्स में वो अपने आदर्श की तस्वीर रखती थीं, उसे दिखाया। मुझे उस तस्वीर को देखकर आश्चर्य हुआ क्योंकि वो कोई अभिनेता या क्रिकेटर की फ़ोटो नहीं। वो वाजपेयीजी की तस्वीर थी।
मेरे उम्र के व्यक्ति अटलजी के प्रति लगाव और आदर्शभाव की इस भावना के साथ अपने आपको जोड़कर देखते होंगे।
वाजपेयीजी की अत्यवस्थ प्रकृति की खबरें बार बार आ रही थी। और फिर हम कितना भी न चाहे कि एक दिन ऐसा भी देखना होगा, वो देखना ही पड़ा। मुझे आज लिखने बहुत तकलीफ हो रही है। अटलजी के जाने के समाचार के बाद कुछ ऐसी निराशा से मन भर गया था कि विचार ही नहीं कर पाई।
मुझे ये समझने में बड़ी कठिनाई हो रही थी कि मैं शोक की इन भावनाओं को कैसे स्वीकार करुं उनसे बिना दूर भागे इस दुःख को महसूस करूं। अटलजी के जाने की खबर सुनते ही ऐसा लगा कि मैं इतनी दूर कहीं जाऊं जहां मुझे ये सत्य स्वीकार ही ना करना पड़े। मुझमें इतनी शक्ति नहीं कि मैं अब रो सकूं।
मुझे इससे पहले ये बात कभी महसूस ही नहीं हुई थी कि आजके किसी नेता के प्रति इतना गहरा लगाव मुझे या किसीको भी हो सकता है। हम हर दिन भ्रष्टाचार, दल बदलना, अनेकों प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप, गैरजिम्मेदार बयान और बर्ताव पढ़ने के आदि हो चुके हैं कि बहुतांश राजनेताओं के प्रति किसी आदर की भावना का अब अभाव होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में अटलजी के प्रति इतने आदर को समझना मुझे ही कुछ हद तक कठिन लगा।
वे सिर्फ एक नेता नहीं थे। उनके व्यक्तित्व में लोगों को अपना बना लेने का ऐसा कुछ जादुई रसायन था कि सबको वे अपने करीबी लगते होंगे। वाजपेयीजी के बारे लिखते हुए कुछ ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं उनसे मिली हुं और हम एक दूसरे को काफी अच्छी तरह से जानते हैं। ये कैसे हुआ? मैंने कभी उनकी कोई सभा भी नहीं देखी थी। वे एक दो बार धुले आएं थे चुनाव प्रचार के लिए। पर मैं उन सभाओं में भीड़ के कारण नहीं गई थी।
हमारा कभी सम्पर्क होने की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी। फिर भी अटलजी के जानेसे जो शोक घर में छा गया उसे संभालना कठिन है। पूरे देश की अवस्था भी ऐसी ही शोकमग्न थी। आज जब राजनेता की पहचान भ्रष्टाचार, दहशत, नफरत ऐसी है तो वाजपेयीजी को सबने केवल राष्ट्रीय नेता के रूप में न देखकर इतना अपना क्यों समझा?
वाजपेयीजी के लिए लोगों का जो स्नेह है वह उनकी कविताओं की तरह ही स्वाभाविक है। ट्विटर पर पेड़ ट्रेंड चलाकर निर्माण किया गया लोकप्रियता का आभास नहीं। उनसे प्रेम करनेवाले सब आम और खास लोग किसी डर से उनकी प्रशंसा नहीं कर रहे हैं। ना कभी ऐसा डर किसीको लगा होगा।
जब संसद के कामकाज का सीधा प्रसारण दूरदर्शन पर शुरू हुआ उन दिनों में वाजपेयीजी के संसदीय भाषण देखने - सुनने का सौभाग्य मिलता था। शालीन हिंदी भाषा में उनका भाषण होता था। भाषण के स्वाभाविक उतार-चढ़ाव, जहाँ आवश्यक हो वहां स्वाभाविक रूपसे उठनेवाली प्रभावी आवाज और कठिन विषयों पर भी सहज तथ्यपूर्ण चर्चा ये सब गुणविशेष श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उत्तम भाषण उत्तम तैयारी से होता है। फिर भी वाजपेयीजी की वाणी में भाषा पर उनका जो प्रभुत्व दिखता था वह केवल तैयारी से प्राप्त नहीं था। उनके भाषण में कृत्रिमता नहीं थी। बहुत अच्छे दिखनेवाले वक्तृत्व में भी कृत्रिमता हो तो वह श्रोता के ह्रदय को स्पर्श नहीं करता।
आज के नेताओं से तुलना करना ना भी चाहे तब भी तुलना हो ही जाती है। आज संसद के कामकाज को कहीं मनोरंजन का माध्यम तो नहीं समझा जा रहा ऐसा सवाल मनमें उठता है संसदीय भाषण और चर्चाएं देखकर।
एक नेता के तौर पर वाजपेयीजी की महानता औरोंको, अपने विरोधियों को, अपनी आलोचना करनेवालों को छोटा दिखाकर या अपने अनुयायियों से गाली-गलौज कराकर जबरदस्ती मनवाई गई नहीं थी।
वाजपेयीजी की आलोचना करनेवाले भी थे। पर अटलजी ने अपने आलोचकों से नफरत नहीं की ना ही उनसे बदले की भावना से बर्ताव कर के उनको दबाने की कोशिश की। सच्चे स्नेह से किसीका दिल जीत लेने की कला अवगत हो तो आलोचक शत्रु की तरह लग ही नहीं सकते।
एक नेता के तौर पर वाजपेयीजी की महानता औरोंको, अपने विरोधियों को, अपनी आलोचना करनेवालों को छोटा दिखाकर या अपने अनुयायियों से गाली-गलौज कराकर जबरदस्ती मनवाई गई नहीं थी।
वाजपेयीजी की आलोचना करनेवाले भी थे। पर अटलजी ने अपने आलोचकों से नफरत नहीं की ना ही उनसे बदले की भावना से बर्ताव कर के उनको दबाने की कोशिश की। सच्चे स्नेह से किसीका दिल जीत लेने की कला अवगत हो तो आलोचक शत्रु की तरह लग ही नहीं सकते।
उनके जानेपर जब देश शोकसागर में डूब गया था उस समय में भी सिर्फ आलोचना लिखनेवाले लोग भी दिखें। मुझे ऐसी छोटी मानसिकता का बुरा लगा। वाजपेयीजी के कार्यकाल में कुछ कमियां रही होंगी पर उन कारणों को सही मान लिया जाए तब भी उससे उनकी महानता कहीं कम नहीं होती। उनके कार्यकाल के दौरान मुझे उनकी आलोचना करने के कारण दिखायी देते थे। आगे भी उनके नेतृत्व की, निर्णयों की तटस्थता से चर्चा होनी आवश्यक होगी, होनी चाहिए। तीन बार जिन्होंने देश का नेतृत्व संभाला है उनके निर्णयों के परिणामों की चर्चा तो होनी ही चाहिए। पर उनकी मृत्यु के तुरंत बाद जैसे वर्षों का दबा बैर व्यक्त करने का यही समय है ऐसी आलोचना लिखना ये कितना उचित है?
ऐसा तो शायद ही कोई नेता हो जिनके सारे निर्णय हमेशा सही रहे हो। कलम की ये शक्ति होती है कि अपने मन की इच्छानुसार किसी भी रंग में एक ही वस्तुस्थिति को दिखाया जाए। पर इस शक्ति का प्रयोग सत्य को व्यापक उपयुक्तता के उद्देश्य से लिखने के लिए करना चाहिए ऐसा मुझे लगता है। इस शक्ति का प्रयोग कर किसी नेता के प्रति सिर्फ नफरत भरे विचार लिखना या अपने पसंदीदा नेता की छवि अच्छी बनाने के उद्देश्य से तथ्यों को शब्दों के जाल में बुनकर लिखना उचित नहीं लगता।
वाजपेयी जी की आभा भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नहीं है यह आभा उनकी स्वयं की है जो उन्हें सबसे अलग सबसे उपर, महान बनाती है।
इस बात को नजरअंदाज करके उनके हमारे बीच से जाने के बाद तुरंत ही नफरत भरे आलेख और ट्वीट्स करना केवल नफरत और नफरत ही दर्शाता है।
मैं उस मानसिकता का समर्थन नहीं करती हुं जिसमें लोग अपने चहिते नेता को भगवान बना देते हैं। महानता तो ये है कि हम उनसे सहमत ना भी हो तब भी प्रेम में कोई कमी नहीं, हमारे विरोध और आलोचना के बावजूद नेता हमारा दिल जीत ले। अटलजी का करिश्मा ऐसा था।
हम दिल में नफरत रखे तो स्तुतियोग्य गुणों की भी आलोचना करने की इच्छा होती है। उन्होंने गठबंधन की सरकार चलाई और सबमें सहमति बनी रहे इसलिए भाजपा के विवादास्पद मुद्दों को दूर रखा। इसमें उनका नेतृत्व दिखता है। नेता ऐसाही होना चाहिए जो अलग अलग विचारों के लोगों को व्यापक देशहित के लिये असहमति के बावजूद साथ ला सके। नफरत की ही नजर से देखना हो तो इसमें स्वार्थ दिखेगा। कल्पना करें कि आज जैसा बहुमत भाजपा को है वैसा अगर वाजपेयीजी को मिलता तो क्या भीड़ द्वारा पीट पीट कर मारने की घटनाएं होती? और क्या वे उनका समर्थन करते? या मौन रहकर सम्मति देतें? या जिस तरह से सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और फेक न्यूज से नफरत फैलाई जा रही है वह होता? क्या उन्हें अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए ये सब करना पड़ता?
इन प्रश्नों का उत्तर तो उनकी मृत्यु की खबर फैलते ही देशभर फैले शोक से मिल गया।
इन प्रश्नों का उत्तर तो उनकी मृत्यु की खबर फैलते ही देशभर फैले शोक से मिल गया।
कुछ लोगों का कहना है कि वाजपेयीजी भी हिंदुत्व ही मानते थे (इसलिए उनसे नफरत करना आवश्यक है और वे आदर के पात्र नहीं हो सकते ये दिल में दबी बात)। हिंदुत्व इस शब्द से भी भारत में नफरत की गहरी जड़ें हैं, इतनी गहरी कि कोई इस शब्द का उच्चारण करने में भी डरे। तो हिंदुत्व की विचारधारा को माननेवाले नेता के बारे में बिना नफरत के लिखना संभव ही नहीं। जिनके साथ हिंदुत्व जुड़ा हुआ है उनके कार्यकाल की तटस्थता से चर्चा करना एक तरह से अलिखित अपराध ही है।
वाजपेयीजी की कविता 'हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन' बहुत पहले लिखी हुई थी। और उसमें किसी अहिन्दु के लिए नफरत नहीं थी। हिन्दू होने में गौरव महसूस करने का ये अर्थ नहीं कि किसी भी अन्य धर्म से नफरत हो या अपने आपको कुछ विशेष मानना हो ना ही भारतीय होने में कोई कमी हो। एक अच्छे मानव होने का बहुत ही सतही, बहुत ही आसान सा लक्षण भारत में हिन्दू होने में शर्म महसूस करना ये है।
वाजपेयीजी की कविता 'हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन' बहुत पहले लिखी हुई थी। और उसमें किसी अहिन्दु के लिए नफरत नहीं थी। हिन्दू होने में गौरव महसूस करने का ये अर्थ नहीं कि किसी भी अन्य धर्म से नफरत हो या अपने आपको कुछ विशेष मानना हो ना ही भारतीय होने में कोई कमी हो। एक अच्छे मानव होने का बहुत ही सतही, बहुत ही आसान सा लक्षण भारत में हिन्दू होने में शर्म महसूस करना ये है।
उन्होंने मोदीजी को राजधर्म के पालन की सलाह दी थी उसमें शासक को कैसा होना चाहिए, राजधर्म क्या होता है ये बताया था, उन्होंने उसका पालन स्वयं किया भी था। प्रधानमंत्री होने के बाद उन्होंने देश के प्रधानमंत्री के कर्तव्य निभाए; तब वे भाजपा या संघ से ऊपर उठ चुके थे।
अक्सर उनपर बाबरी मस्जिद गिराने के लिए कारसेवकों उकसाने का आरोप लगाया जाता है। पर अगर उसमें तथ्य भी हो तो क्या जीवनभर उनके वही विचार रहे थे? (ये आलेख भावनाओं की अभिव्यक्ति है और तथ्यों में जाकर लिखने जैसी मेरी मनोवस्था अभी नहीं है।) केवल आलोचना करने के लिए आलोचना की जा रही है ऐसा लगने लगे इस हद तक किसी एक विचार, व्यक्ति के विरुद्ध आप लिखने लगे तो सबसे पहले तो लेखक की विश्वसनीयता पर सन्देह होता है।
जिस तरह से हृदय की गहराइयों से अटलजीकी संवेदनशीलता काव्य बनकर प्रस्फुटित होती थी उसी तरह से जनता ने भी उनसे प्रेम किया था, हृदय की गहराइयोंसे। जब जनता उन्हें भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेते देखना चाहती थी तब सोशल मीडिया भी नहीं था, ना कोई ट्रोलों की फौज थी। आज तो इस बात की कल्पना भी करना मुश्किल है कि अपनी खुद की ट्रोलों की फौज के बिना या अपने स्तुतिगान करनेवाले पत्रकारों के बिना भी कोई लोकप्रिय हो सकता है। खुद को प्रधानमंत्री के दावेदार बनाने के लिए उन्हें खुद या अपने स्तुतिपाठकों के जरिये पार्टी में दबाव नहीं बनाना पड़ा था। उनके नेतृत्व में दुसरे से छीन लेनेवाला स्वार्थ नहीं था। और ये बात उन्हें सर्व-स्वीकृत, सर्वमान्य नेता बनाती है।
वाणी पर माँ सरस्वति की कृपा हो ऐसा हम जिस प्रतिभा के लिए कहते हैं वह वाजपेयीजी की थी। वाजपेयीजी के भाषणों में उस मृदुमन के कवि के हृदयस्पर्शी भाव व्यक्त होते थे जिनके कारण उनकी कविताएं सबके लिए और विशेष रूपसे निराश व्यक्ति के लिए एक प्रेरणास्रोत हैं।
हिंदी काव्य का जो खजाना मेरे जीवन में खुला और चैतन्यपूजा से निरंतर आत्मिक शांति का प्रवाह बना है उसमें सबसे बड़ा प्रभाव वाजपेयीजी की कविताओं का ही है। विभिन्न भावतरंगों को, आसानसी भाषा में गानेवाली उनकी कविताएं उनकेही आवाज और ख़ास अंदाज में सुनतेही ह्रदय पर अंकित हो गयी थी। बचपन में ही। काव्य यही वह रिश्ता था जो मुझे इतना शोकमग्न कर गया।
पर काव्य की डोर इतनी ठोस है कि वह जीवन-मृत्यु के चक्र से परे हैं इसलिए टूटने की संभावना ही नहीं। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयीजी को, हम सबके प्यारे नेता अटलजी को शत शत नमन।
ट्विटर: @Chaitanyapuja_
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चैतन्यपूजा मे आपके सुंदर और पवित्र शब्दपुष्प.