एक बहुत बड़े भ्रम और काल्पनिक आनंद का यथार्थ विश्लेषण करना कुछ हद तक असंभवसा काम है । 'अच्छे दिन' एक काल्पनिक आनंद का ही नाम है। भारतीय जनता पार्टी के दो वर्ष के कार्यकाल और अच्छे दिनों के प्रचार की वास्तविकता पर विश्लेषण।
२०१४ के लोकसभा चुनाव में आक्रामक प्रचार, मार्केटिंग और मोदीजी की ब्राण्डिंग से लोगों में बहुत उम्मीदें बंधी थी। अच्छे दिन आनेवाले हैं, ये सुनकर जरूर अच्छा लगता है। पर मार्केटिंग और ब्रांडिंग केवल भ्रामक नहीं होना चाहिए। उत्पादन या सेवा का स्तर इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। 'अच्छे दिन' शब्द की कोई ठोस व्याख्या नहीं की जा सकती। इस शब्दके व्यक्तिनिहाय अर्थ भिन्न हो सकते हैं। किसी के लिए 'अच्छे दिन' महंगाई कम होना हो सकता है तो किसी और के लिए मार्केट पर अपने उत्पादों का कब्ज़ा और नए नए उद्योग लगाना भी हो सकता है। जिन लोगों का साफ़ तौर पर फायदा इन दो सालों में हुआ है उन्हें अच्छे दिनों का गान तो गाना ही होगा, ताकि फायदा आगे भी मिलता रहे ।
एक इन्सान के पास देश और दुनिया की हर समस्या का जादुई समाधान है, इसलिए उस इन्सान को सबने चुन के देना चाहिए इस भ्रामक प्रचार से मार्केटिंग की शुरुवात हुई। लेकिन, बाद में देश की समस्याएं बदल दी गई और उनका दोष हर विरोधी के नाम कर दिया गया ।
सत्ता के दो साल में प्रचारित मुख्य बातें:
अ. मोदी जी प्रधानमंत्री बन गए ये बात विरोधी अभी तक पचा नहीं पाए ।
ब. सारी गन्दगी कांग्रेस ने करके रखी है, साठ साल तक आपने सह लिया और अब तुरंत परिणाम मांग रहे हैं। (दोहराना आवश्यक है: मोदीजी के पास मुश्किल से मुश्किल समस्या का जादुई समाधान है इस प्रचार के कारण लोगों में उम्मीदें भी ज्यादा थी।)
क. मोदीजी का शुक्रिया, उन्होंने इस देश का प्रधानमंत्री होना स्वीकारा। ये देश बहुत भाग्यवान है कि इसे मोदीजी जैसे प्रधानमंत्री मिले ।
कौन सत्ता पाने के लिए रात-दिन एक नहीं करता? क्यों हम इन्सान को जबरदस्ती भगवान बना देते हैं? और ये कांग्रेस पार्टी में जिस तरह से चापलूसी चलती है, उससे अलग कैसे है?
सरकार और मंत्रियों की कार्यप्रणाली:
१. इसका विश्लेषण प्रधानमंत्री से लेकर छोटे बड़े मंत्रीयों तक सब लोग ट्विटर पर कितना समय व्यतीत करते हैं ये देखकर पता चलता है । मोदीजी के ट्विटर पर सक्रीय होने को मोदीजी की तकनीति आधुनिकता और युवाओं के नेतृत्व के रूप में देखा जाता है। पर मोदीजी सिर्फ अपने कार्यों का प्रमोशन करते हैं; लोगों से ट्विटर पर सीधे संवाद नहीं करते। इसके अलावा रोज जिन सामाजिक समस्याओं पर ट्विटर पर सक्रीय लोग अपने विचार रखते हैं, उन समस्याओं से मोदीजी की ट्विट बिलकुल अलग होती हैं। अलग अलग अवसरों पर बधाइयाँ, अपनी पार्टी और रैलियों के फोटो, सेल्फी, वगैरह पोस्ट करना नेतृत्व नहीं है। इस तरह से प्रचार का काम किसी कर्मचारी को दिया जा सकता है, इसमें प्रधानमंत्रीजी को समय देने की क्या आवश्यकता? प्रमोशन करने में कुछ भी अनुचित नहीं पर इसे युवाओं के नेतृत्व का रंग देना भ्रामक प्रचार है।
२. इन दो वर्षों में मुझे एक बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी, प्रधानमंत्री ने अपनी गरिमा और राष्ट्र के सर्वोच्च पद का सम्मान न करना। प्रधानमंत्रीजी की बॉडी लैंग्वेज दुसरे देश के प्रधानमंत्री, मंत्री, यहाँ तक की कंपनियों के सीइओ इनके सामने कुछ कमजोर और झुकी हुई होती है। इसे विनम्रता नहीं कहा जा सकता। द्विपक्षीय संबंधों में कमजोर बॉडी लैंग्वेज आवश्यक निर्णयों पर और भारत के पक्ष पर नकारात्मक परिणाम कर सकती है।
प्रतिमा स्रोत: ibnlive.com
प्रतिमा स्रोत: firstpost.com
ईरान के राष्ट्रपति का मोदीजी की पीठ पर हाथ रखने का कोई सम्मानजनक कारण नजर नहीं आता।
(और भी तस्वीरें इन्टरनेट पर खोजकर देख सकते हैं।)
३. देशकी समस्याओं की ओर ध्यान देने की बजाय अपनी पार्टी की सत्ता का कैसे विस्तार हो इसपर प्रधानमंत्री का हर कार्य केन्द्रित हो तो ये इस पद का अपमान ही हुआ। कांग्रेसमुक्त भारत का अर्थ पूरी सत्ता जैसे पहले कांग्रेस के हाथ में होती थी, भाजप के हाथ में आये ये ध्येय प्रतीत हो रहा है। इसका भारत को कोई फायदा होगा या नहीं ये महत्त्वपूर्ण नहीं नजर नहीं आती। पार्टी की नीतियां जो भी हो, प्रधानमंत्री ने अपना कार्य समूचे देश पर केन्द्रित रखकर ही करना चाहिए ऐसी लोगों की उम्मीद होती है।
४. रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' के जरिए देश के लिए कम महत्त्व की, लगभग अनावश्यक बातें विस्तार से करके प्रधानमंत्री पद के अनमोल समय की बर्बादी हो रही है। मोदीजी महिने की मुख्य समस्याओं पर सरकार क्या कर रही है, ये बताएं तो उपयुक्त होगा। 'मन की बात' के जरिए अपने निजी विचार और व्यक्तित्व की बात करनी हो तो सरकारी यंत्रणा का उसके लिए प्रयोग ना हो।
५. अन्य मंत्री भी एक एक शिकायत का उत्तर देते ट्विटर पर देखे जा सकते हैं। ये बात सराहनीय जरूर है, पर क्या एक मंत्री का समय बड़ी दूरगामी नीतियों के प्लानिंग और कार्यान्वयन में नहीं लगना चाहिए? ट्विटर पर जितने ट्रोल सरकार के विरोधियों को अपमानजनक भाषा में उत्तर देते हैं, उन्हें भी लोगों की मदद का काम दिया जाए तो सरकार का सकारात्मक प्रचार हो सकता है।
६. एक मंत्री किसी पत्रकार के साथ या किसी पार्टी के प्रवक्ता के साथ उलझ जाए और ट्विटर पर शाब्दिक युद्ध शुरू हो इससे सरकार में गंभीरता की कमी साफ़ दिखती है ।
७. संसद में जब खुले आम ये कहा जाता है, “कल एडमिशन लेना हो तो मेरे पास ही आना है”, इससे सरकार के बारे में क्या सन्देश मिला? ऐसा लगा कि मंत्रीमहोदया की दृष्टी से मानव संसाधन मंत्रालय के मंत्रीपद का उपयोग केवल अपने नाम से किसी को एडमिशन दिलवाना या किसीको शिक्षा से निकलवाना ही हो ।
८. गोमांस के शक में एक अल्पसंख्य की पीट पीट कर हत्या कर दी जाती है, जिसपर सरकार को बोलने में कोई दिलचस्पी नहीं और दूसरी ओर ईरानमें अन्य संस्कृति का आदर दिखाने के लिए हमारे देश की विदेश मंत्रीजी अपने हाथ तक ढक लेती हैं, तो ये विरोधाभास क्रूर लगता है।
९. स्वच्छ भारत अभियान में स्वच्छता कर्मचारियों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाता तो अभियान निश्चितरूपसे सार्थक होता।
१०. दो वर्षों में आंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के घटने के बावजूद भारत में पेट्रोल, डीझल के बढ़ते दाम, दालों के, सब्जियों के बढ़ते दाम, सर्विस टैक्स को बढ़ाना, उपकरों की मार इन सबसे लोकसभा चुनावों में अच्छे दिनों का प्रचार कितना भ्रामक था इसका रोज एहसास हो रहा है ।
११. असहिष्णुता के मुद्दे पर जिस तरह से देशभक्ति का उन्माद दिखाया गया वो शर्मनाक लगा। समर्थक अनुचित बर्ताव करें तो नेता उस बर्ताव की जिम्मेदारी से अपने हाथ छुड़ा नहीं सकते। उसी तरह से जेएनयु का विवाद भी एक अपरिपक्व उन्माद के उत्तर में अनावश्यक उन्माद था।
१२. पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमला, उसके विरुद्ध कार्यवाही के मामले में प्रधानमंत्री को ठीक से पता ना होना और अंत में पाकिस्तान की टीम को इस हमले की जांच के लिए बुलाना इस सरकार की बहुत बड़ी नीतिगत और सामंजस्य की कमी रही।
१३. सोशल मीडिया पर सरकार के विरोधियों का अपमान और टार्गेटेड तिरस्कार किया जाता है, सोशल मीडिया टीम से पार्टी के नेता मिलते हैं। बड़ा सम्मेलन होता है। इससे भाजप और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में क्या सन्देश दिया जा रहा है?
सार-विचार: संघ के स्वयंसेवकों के सेवाकार्यों के प्रति मेरे मनमें पहले बहुत आदरभाव था, पर अब अपने विरोधियों के प्रति सोशल मीडिया पर अपने आपको संघ समर्थक, राष्ट्रवादी कहनेवाले लोगों का बर्ताव देख वो आदर की भावना अब नहीं रही। अगर ये रणनीति कभी आगे चलकर उलटी पड़ने लगेगी तो उसका नुकसान भाजपा से ज्यादा संघ को होगा।
इन दो वर्षों में लिखे भाजपा कार्यकालमें विभिन्न मुद्दों पर पोस्ट का संग्रह:
कविताएं:
- देशभक्त की पुकार - मन की बात मिले हरदिन बार बार
- डीग्री मिलेगी कहीं १०-१० में चार?
- बहस का मुद्दा: अक्ल बड़ी या भैस
- आत्महत्या का फैशन
- हमें रंगारग कार्यक्रम इतने अच्छे क्यों लगते हैं?