कविता: बिछड़ा नीम

आज की कविता मेरे एक बिछड़े पुराने दोस्त पर

काटकर ले गया कोई
वो मेरा दोस्त,

नीम का पेड़.
रोज जिससे दिल की हर बात बताती थी,
अब किसे बताऊँ दिल का राज
अब किसे बताऊँ तुम्हारी बात?
दुनिया समझ न सके वो दर्द 
अब किससे कहूँ दिल का हर राज
शाम को मिलता था फुरसत से.
मुस्कुराते हरे
लहलहाते घने पत्तों से
मेरा दर्द सुनता था वो
मेरा गहरा दोस्त बनकर

Image: Neem Tree
बिछड़ा नीम 
अब ये दोस्त मेरे साथ नहीं 

मौन रहकर भी कुछ सोचता 
शांत ध्यानस्थ तपस्वी की तरह
सुनता था मेरा हर दर्द,
मेरी हर ख़ुशी...
दौड़कर बताती थी हर कहानी उसको...
अपने मंद प्रवाह से
शांति की हवा बिखेरता था वो...
आज काटकर ले गया कोई..
उसे...आज.
अब किससे बात करूँ...?
कविता लिखती थी उसीकी प्रेरणा से
जिन्दगी के बदलते मौसमों का दर्द
बयां करती थी उसको.
एक जगह खाली हुई उसके जाने से
याद दिलाती है हर बात 
उसकी प्रेरणा बनके 
वो कहता था,
मुझे कितनी बार काटा गया,
याद नहीं किस-किसने ये जुल्म किया.
मेरी नजरें आसमान की ओर ही थी 
हमेशा.
मैंने उर्ध्वगति से ही बढ़ना जाना,
जख्मों जुल्मों के साथ भी 
उंचाईयों को छूना ही चाहा हमेशा. 
मैं रुका नहीं
बार-बार तोड़नेपर भी टूटा नहीं. 
जिन्दगी में जख्म मिले
पर मैं छाया बन गया,
मरहम बन गया 
सबकी धूप में 
तुम क्यों उदास होती हो?
तुम चुपचाप क्यों रोती हो
शाखाओं का कटना मृत्यु तो नहीं,
मैं तो फिर भी नई शाखाओं से शांति बनकर बढ़ता ही रहा
मैं तो यही हूँ..."
वो मेरा दोस्त 
मेरा नीम का पेड़
मौन होकर भी कहता है 
"मैं तो यहीं हूँ..." 
फिरसे जन्म लेगा वो
नव पल्लवों से
अपने ही बचे बूढ़े अवशेष से
एक उम्मीद जिन्दा रखती हूँ
उसीकी प्रेरणासे 
हर दिन आगे बढ़ती हूँ
एक बिछड़े दोस्त की मौन प्रेरणा 

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