कभी कभी उलझन भी कविता बन जाती है।
न तुमको समझ पाती हूँ मैं
न तुमको समझ पाती हूँ मैं
कैसी उलझन बन गई है जिन्दगी
न तुम सुलझा पाओ न मैं सुलझा पाऊं
रस्म-ए-इश्क क्यों होती है इतनी मुश्किल
दिल की बात न कर पाऊं
एक बार भी समझ जाती सुलझाना मेरे दिल को
तकलीफ तुम्हारे दिल को जरा भी न होती
तुम्हारी तकलीफ में रो-रोकर
अपनी हालत भी यूँ बुरी न होती
काश तुम समझते, काश मैं समझा पाती,
बेवजह यूँ दूरी सहनी न पड़ती
बेवजह यूँ दूरी सहनी न पड़ती
सबकुछ सही था फिर भी कुछ उलझन हो गई
दिल ही दिल में हमारे गहरी चोट हो गई
दिल की चोट, दिल के घाव
दिल से ही भरेंगे
बस एक बार मिलना मेरे दिल से
दिल के दर्द मिट जाएँगे
दिल के दर्द मिट जाएँगे
कैसे बताऊँ, कितना टूट गई थी तुमसे बिछड़के
कैसे बताऊँ, कैसे छुपाती थी टूटे दिलके तराने
सोचा, तुम्हें कैसे न खबर होगी
तुमने ही तो दिलसे बात करने की शुरुवात की थी
तुम समझ न पाए
मैं बोल न पाई
और ये कहानी कुछ और ही हो गई
शायरी जो तुमने दिल से शुरू की थी
कहीं बीचमें ही अधूरी क्यों रह गई?
आगे क्या लिखूं इस 'उलझन' में
अब तुमही बताओ
इस शायरी को पूरा करने
क्या लिखे
दिल के शब्द भी तुमही बताओ
ऐसीही कुछ और खुबसूरत कविताएँ:
शायरी जो तुमने दिल से शुरू की थी
कहीं बीचमें ही अधूरी क्यों रह गई?
आगे क्या लिखूं इस 'उलझन' में
अब तुमही बताओ
इस शायरी को पूरा करने
क्या लिखे
दिल के शब्द भी तुमही बताओ
ऐसीही कुछ और खुबसूरत कविताएँ: