कल
बिहार के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह के साथ नए राजनैतिक समीकरण बनते
दिखे। बिहार में लालूप्रसाद यादव, नितीश कुमार और कांग्रेस गठबंधन की जीत और भाजप
की हार इस स्थिती, बदलते राजनैतिक समीकरण पर एक सामान्य व्यक्ति के
जीवन की दृष्टी से आज का आलेख।
एक
व्यक्ति के तौर पर मुझे क्या फर्क पड़ेगा? मेरे लिए मजेदार बात ये है कि मैं ऐसे
वर्ग से आती हूँ, जिस वर्ग के मतों को लुभाने से किसी राजनैतिक दल को कोई फायदा
नहीं है और फायदा नहीं है इसलिए दिलचस्पी भी नहीं। कोई नेता दिलचस्पी ले तो मुझे
तो ऐसे किसी भेद के नाम पर बाटनेवाले नेता मुझे स्वीकार्य नहीं लगेंगे।
आजके
दौर के नेता राजनैतिक सलाहकारों की रणनीतियां उनकी जीतमें कैसे कारण हुई, मार्केटिंग
का क्या प्रभाव रहा, कैचलाइन क्या थी, उनके लिए कौनसा गाना लिखा गया ये प्रचारित करते हैं। इस सबपर पूरी तरह से निर्भर भी दीखते हैं। इससे वे ये सन्देश देते हैं कि उनके नेतृत्वगुण और राजनैतिक समझ
उनको जीताने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। दूसरा परोक्ष सन्देश ये भी होता है कि मतदाता
अपनी बुद्धि और राजनैतिक समझ से मत नहीं
देते बल्कि गानों, नाच, और कैचलाइन के ऊपर, और मतों के गणितों पर आकर्षित होकर मत देते हैं। जब कोई
राजनैतिक रणनीतिकार किसी को जीताने या हराने में काबिल है ऐसा खुद नेतागण मानते
हैं तो क्या आपको नहीं लगता यह आम लोगों की, गरीबों की समझ का खुले तौर पर मजाक उड़ाना
है? आजकल काफी विश्लेषण किसके विरुद्ध लिखना है या किसे बढ़ाचढ़ा कर दिखाना है, किस
मुद्दे को बार बार तूल देकर भड़काना है, इस तरह से लिखे जाते हैं, इसलिए आम लोगों
का बातों बातों में कितना ही अपमान किया जाता है, उसकी शायद चर्चा नहीं होती।
आरक्षण
के विरुद्ध भारत में कुछ सुनना पसंद नहीं। इतने दशकों से आरक्षण चल रहा है, जाती की राजनीति करने वालों की
पीढियां तर गई। जिन्हें उनका हक़ मिलना चाहिए था वे तो अभी भी गरीब ही हैं।विकास
तो इन नेताओं के बेटे बेटियों का हो रहा है। आम लोगों की जिन्दगी की समस्याओं से
उन्हें कभी सामना नहीं करना पड़ता। वे हमारे लिए क्या करेंगे? अभी लालूप्रसाद
यादवजी ने अपने बेटों के नाम उपमुख्यमंत्री पद के अलावा ६ मंत्रिपद कर लिए। आगे की पीढ़ी के राजनैतिक
करियर की व्यवस्था हो गई। लोकसभा रामविलास पासवानजी के पुत्र को एक सीट मिल गई। पिछड़ों का कल्याण, आरक्षण, विकास, जनता का दिल बहलाने के लिए अच्छी कल्पनाएँ बन कर रह गई हैं। आम जनता का कितना कल्याण होना चाहिए, हो सकता है और कितना वास्तव में हो रहा है
इसका हिसाब राजनैतिक परिवार कैसे फल फूल रहे हैं ये देखकर करना आसान है।
पर
गरीबी और भेद वाकई समाप्त हो गएँ, तो ये राजनेता अगले चुनाव में किस बात पर मत मांगेगे। जातिगत विद्वेष रहना राजनीती के लिए जिन्दगी चलाने का माध्यम है। लोगों के गरीब,
अन्यायग्रस्त रहने का कारण अलग अलग जातियों और धर्मों के मसीहा बने नेताओं से
पूछना चाहिए, लेकिन उससे समाज बाटने का लक्ष्य जो पारतंत्र्य से चला आ रहा है, पूरा
नहीं हो सकता।जातियों के मसीहाओं पर प्रश्न उठाए तो उससे समाज तो बटेगा नहीं इसलिए
उसकी भी चर्चा नहीं होती।
दिवाली
में मैंने एक दीयों की फोटो ब्लॉग की थी। तब बिहार चुनावों का अंतिम चरण चल
रहा था। दिये बेचनेवाले भैरवजी बिहार से धुले आए थे। एक टेंट जैसे घर में अपने दो बेटों
के साथ रह रहे थे। बेटे भी पिता की दिये बेचने में मदद कर रहे थे। धुले अर्ध-विकसित जगह है। पर बिहार से चुनावों के दौरान अपनी रोजी रोटी के लिए, चुनावों और अपने बच्चों
की शिक्षा की परवाह किए बिना जब किसीको धुले जैसे छोटेसे शहर में आना पड़ता है तो
इससे कुछ बातें दिखती हैं।
एक तो
लोगों को राजनेताओं पर विश्वास नहीं, चुनावों के परिणाम जो हो अपनी रोजी रोटी के
लिए दिन रात मेहेनत करते रहना, संघर्ष करते रहना यही उनके लिए पर्याय लगता है। दुसरी
बात मनमें आती है कि बिहार का कितना विकास हुआ है। तीसरी बात गरीबों, दलितों,
पिछड़ों के मसीहा बननेवाले नेता वास्तव में उनका विकास करते हैं या नहीं।
बिहार
के चुनावो में भारत के बहुप्रचारित
क्रांतिकारी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेता अरविन्द केजरीवाल लालूप्रसाद यादव
के साथ हो गए। मैंने आरम्भ से ही जब इस आन्दोलन पर प्रश्न उठाए थे, तब मेरी बहुत
आलोचना हुई थी। मैंने अपने विचार तब रखे थे। मुझे ये भावनात्मक उन्माद आज भी समझ में
नहीं आता। सबको अपना मत रखने का अधिकार है, भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर जो भी
अपनी अलग राय रखे उसे फेसबुक पर देशद्रोही कहा जाता था। आलोचना से बुरा नहीं लगता,
उससे तो अधिक गहराई से लिखने और सुधारने के लिए प्रेरणा मिलती है। लेकिन उस आन्दोलन पर अपना मत रखने के कारण दोस्ती में दरार वैचारिक अपरिपक्वता थी। उस आन्दोलन को बादमें राजनीती में लाया
गया और फिर कौन साथ रहा और कौन नहीं यह तो सब जानते ही हैं। उस भ्रष्टाचार विरोधी
आन्दोलन के बाद से अब तक वास्तव में कितना भ्रष्टाचार समाप्त हो गया है यह तो
लोगों ने खुद ही समझना चाहिए। इसका
उत्तर लालूप्रसाद यादव और अरविन्द केजरीवाल के साथ आने से ही मिल गया।
राजनीती कहीं न कहीं इस तरह से लोगों में किसी न किसी बात से भेद पैदा करनेपर ही चलती दिखती है। किसी विशिष्ट विचारधारा पर विश्वास हो तो मोहभंग का दुःख हो सकता है, पर आजकल 'अपना नेता करे वही सही' ऐसा मानने का दौर है।
हम किसी राजनैतिक दल या नेता के प्रति मोह से अंधे न होकर
इन विषयों की तरफ देखें तो
कम से कम अपने मन और जिन्दगी की शांति बनी रहती है।
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