नवरात्रि उत्सव चल रहा है। जगदम्बा माँ की आराधना में हमारे दिन और रात भक्तिमय हो रहे हैं। आज चैतन्यपूजा में भगवती की प्रार्थना में एक स्तोत्र। यह प्रार्थना माँ से साधना में दृढ़ निष्ठा बनी रहे इसलिए विशेषरूप से मेरे मन में आई।
सद्गुरुरूपिणी माँ
मेरे सद्गुरु परम पूजनीय श्री नारायणकाका महाराज
साधना के अनेकों रूप:
साधना में दृढ़ निष्ठा होना और अपने पथ से मोह, भ्रम या प्रमाद के कारण
विचलित न होना इसके लिए सद्गुरुरुपी माँ की या कुण्डलिनी माँ की यह प्रार्थना है। महायोग के साधक के रूप में यह स्तोत्र लिखा है।लेकिन, साधना चाहे नामजप, सेवा
या ध्यानमार्ग की हो या अपने धर्म/मत/पंथ/संप्रदाय की श्रद्धा के अनुसार से उस परमशक्ति
के लिए की गई आराधना या प्रार्थना हो, उस साधना में हमारी निष्ठा का माँ रक्षण करे यही एक साधक के लिए सबसे आवश्यक प्रार्थना है। अपने कर्तव्य कर्म में पूरी निष्ठा और लगन से काम करना यह साधना का एक और रूप है।
साधना-जीवन की शक्ति:
जीवन में किसी का साथ मिले ना मिले, साधना एक ऐसी शक्ति होती है जो हर
क्षण हमारे साथ रहती है। जैसे बच्चे के जन्म से ही हर माँ उसके लिए चिंतित रहती है,
वैसे ही शक्ति अपने साधकों के लिए चिंतित रहती है। बच्चे जब बोल भी नहीं सकते, तब
भी माँ को अच्छी तरह से पता होता है, कब बच्चे को भूक लगी है, कब कोई बीमारी हुई है या
कुछ दर्द हो रहा है, या बच्चा उसे याद कर
रहा है। माँ का पूरा ध्यान अपने बच्चे में ही लगा रहता है। वैसे ही माँ भगवती अपने
साधकों के जीवन के हर क्षण में उनके साथ होती है। यह शक्ति स्वयंप्रकाशित होती है।
साधना में आतंरिक विघ्न:
मानवी मन आलस्य, अश्रद्धा या भ्रम के कारण साधना के प्रति पूरा समर्पण नहीं रख
पाता। हमें किसी भी ध्येय को प्राप्त करना हो तो दृढ़
निष्ठा से प्रयास और अभ्यास रोज करते रहने चाहिए। किसी कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना हो,
या किसी खेल प्रतियोगिता को जीतना हो, नियमित प्रयासों की बहुत आवश्यकता
होती ही है।खिलाडियों की तैयारियां अगर हम देखें तो खेल के उस एक दिन के लिए वे
कितने वर्ष तक रोज लगन से प्रयास करते रहते हैं। अगर हमारा लक्ष्य अध्यात्म है तो उसमें आलस्य क्यों?
साधना में बाह्य कारणों से आनेवाले विघ्न:
साधक के लिए बाहरी कारण भी कभी कभी प्रतिरोध बनते हैं। भक्तिमती संत मीराबाई का उदाहरण, मुझे, इस विषयमें अनुकरणीय लगता है।उन्होंने अपनी निष्ठा और भक्तिसाधना को अंततक नहीं छोड़ा, चाहे उन्हें उसके लिए अनगिनत दुःख ही क्यों न सहने पड़े। अपने मनमें अखंड शांति का सागर बहता
रहे इसके लिए कोई साधना करे तो इन प्रयासों में और लगनमें शर्मिंदगी वाली कौनसी बात है? अगर कोई साधक अपने कर्तव्यों से जरा भी दूर हुए बिना अपने निजी शांति के लिए साधना करे तो इसमें उसको अपराधबोध क्यों होना चाहिए? समाज ने साधक के साधना पर उसे गलत क्यों समझाना चाहिए? मुझे तो यह बहुत अनुचित लगता है। एक तरफ तो लोग भ्रूणहत्या जैसे महापाप में कुछ भी गलत नहीं समझते और दूसरी तरफ अध्यात्म जैसे विषय को, जो हमारा जीवन परिपक्व बनता है, विचित्र समझते हैं। अध्यात्म के प्रति बड़ा प्रतिरोध धार्मिक लोगों के मनमें अधिक दिखता है। अर्थहीन रूढ़ियों को गलेसे लगाकर रखना ही कभी कभी हमारे लिए धर्म रह जाता है।अपनी सुविधा के अनुसार अध्यात्म को धर्म से चुपके से निकालकर फेंका जाता है।
अध्यात्म के क्षेत्र
में सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास यह
है कि प्रवचन में जो बड़े बड़े उपदेश दिए जाते हैं, वह आचरण के लिए होते हैं, यह हम
नहीं मानते; कुछ तो उपदेश देनेवाले भी नहीं मानते। ऐसे भी धार्मिक लोग होते हैं, जो साधक को विपरीत उपदेश करके साधना से
पथभ्रष्ट करते हैं। कुछ धार्मिक लोग (या धर्म के व्यवसायी?) भी ऐसे होते हैं, जो
बिना योग्यता के, बिना जाने, किसी की साधना में अपने मत, नसीहते देते हैं। साधक के
मन में बुद्धिभेद निर्माण करना यह कहीं न कहीं उन्हें सही लगता है। इस तरह के अविचारी और अनधिकारी लोगों
के कारण साधक की जिन्दगी का बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। मेरा यह मानना है कि अगर
सच्चे और परिपूर्ण सद्गुरु मिले, ऐसे सद्गुरु जो शिष्य के मोक्ष के मार्ग पर ही ध्यान दे, तो बुद्धिभेद करनेवाले धार्मिक गुरु या संत समझे जानेवाले लोगों की ओर से ध्यान हटाकर साधकों ने अपने साधन और गुरुदेव की
आज्ञा का ही दृढ़ निष्ठा से पालन करना चाहिए।
साधना में निष्ठा की आवश्यकता:
किसी की जिन्दगी में अपने स्वार्थ के लिए दखल देनेवाले अनधिकारी गुरुओं या धार्मिक नेताओं से, साधक ने, अपने विवेक से ही दूर रहना चाहिए। साधक ने अपने गुरु के साधन और उनकी आज्ञापर ही निष्ठा
रखनी चाहिए। एक बार साधना के विषय में बुद्धिभेद आ गया तो साधना से तो निष्ठा विचलित होती ही है, परन्तु अनधिकारी धार्मिक उपदेशक खुद आगे सही दिशा न सकने के कारण, साधक के आध्यात्मिक विचारों को बहुत आघात पहुँच सकता है।
इसलिए मुझे लगा कि साधना में दृढ़ निष्ठा के लिए ही माताजी की प्रार्थना करनी चाहिए। साधना में दृढ़ निष्ठा हो तो पतन की सम्भावना नहीं रहती। साधना साधक को हर दोष से बचाती है; अपने ही प्रकाश से आगे का पथ चलती रहती
है। मेरे गुरुदेव कहते थे कि साधना पर ही ध्यान दो, सारे विघ्न दूर हो जाएँगे। चिंता मत
करो।जीवन में हर छोटी – बड़ी घटना में हमारे मन की इमानदारी की कसौटी लगती है। उचित-अनुचित का विवेक बहुत ही सूक्ष्म होता है। ऐसे में छोटासा भी गलत निर्णय या
अविवेक मन की उस इमानदारी को हानी पहुंचा
सकता है। लोग हमें क्या समझते हैं, यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, पर साधक के लिए अगर अपने ही
विचारों या तत्वों के विपरीत आचरण हुआ तो उसका दुःख बहुत गहरा होता है और वह अन्दर
ही अन्दर चुभता रहता है। इस तरह के दुःख को आम तौर पर कोई ठीक ठीक समझ नहीं सकता। ऐसे में सद्गुरु ही सही मार्गदर्शन कर सकते हैं।खेद करने में समय व्यर्थ न हो इसलिए भी साधना में ही दृढ़ निष्ठा की आवश्यकता
है। धर्म और अधर्म का सूक्ष्मतम विवेक माँ ही प्रदान करती है।
नाम, पैसा, इसमें से
कुछ भी स्थिर नहीं रहता। पर ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा यही होती है कि विपरीत परिस्थिती
में भी हमारा मन धर्म से विचलित न हो और अपना स्वार्थ साधने के लिए अधर्म में हमारी प्रवृत्ती न
हो। जीवन के यशस्वी क्षणों में जब सारी दुनिया साथ देती है तब अहंकार न हो और घोर विपदाओं में जहाँ
अपना साया भी पराया हो जाता है तब मन धैर्य का कभी
त्याग न करे। हमारा वर्तन सबके प्रति सम्मान से भरा और प्रेमपूर्वक रहे, यह ईश्वर
की कृपा से ही संभव है ऐसा मुझे लगता है। सदा चंचल रहना ही जिसका स्वभाव है उस
मनमें यह शाश्वत स्थिरता साधना से आती है। इसलिए साधना में दृढ़ निष्ठा मिलना साधक के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होना चाहिए।
प्रार्थना: साधन में दृढ़ निष्ठा देना
हे शक्तिस्वरूपा, जगदानंदकारिणी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || १ ||
हे वात्सल्यरूपा, कृपाशक्तिदायिनी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || २ ||
हे विश्वमोहिनी, चराचरजगत्धारिणी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ३ ||
हे मुक्तिस्वरूपा, मोहबंधनिवारिणी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ४ ||
हे कालस्वरूपिणी, कालभयविनाशिनी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ५ ||
हे कैवल्यदायिनी, शत्रुभयविनाशिनी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ६ ||
हे कृपासिन्धो माते, शरणागतदुःखनिवारिणी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ७ ||
हे सर्वविद्याप्रदायिनी, काव्यपुष्पस्फुरत्कारिणी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ८ ||
हे सद्गुरुरूपा, शिष्यकल्याणकारिणी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || ९ ||
हे महायोगरूपा, कुण्डलिनीजीवनस्वामिनी
साधन में दृढ़ निष्ठा देना,
हे भवदुःखवारिणी
तेरे भक्त की सदा रक्षा करना
हे दुस्तरदुःखवारिणी || १० ||
काव्य में आए भगवती माताजी के नामों के अर्थ:
कृपाशक्तिदायिनी: मुझे माँ की कृपा से जो शब्द स्फुरण हुए, वे ही ये नाम हैं। भगवती की कृपा अपरिमित होती है। वे अपनी कृपा से अपने भक्त के जीवन का पूर्ण कल्याण तो करती ही है, परन्तु अगर वे चाहे तो अपनी कृपा की शक्ति अपने भक्त में भी उसी तरह से प्रकट करती है और फिर भक्त के द्वारा भी माँ जैसी ही विश्व में कृपा हो सकती है। इसलिए माँ अंबे केवल कृपा ही नहीं करती तो अपनी कृपा करने की शक्ति भी अपने भक्त को दे सकती है। यह बात मैं विशेष रूप से शक्तिपात महायोग के सन्दर्भ में कहना चाहती हूँ। माँ के भक्त भलेही ही माँ की इच्छानुसार चले, एक बार माँ ने उनको अपना मान लिया तो फिर भगवती अपनी सारी कृपा और शक्ति भक्त को दे देती है।
विश्वमोहिनी: देव्याथर्वशीर्ष में शक्ति को विश्वमोहिनी कहा गया है।इसका अर्थ मुझे ऐसा लगता है कि उनकी शक्ति सर्वव्यापी और सबसे परे भी हैं। दुनिया में जो कुछ भी होता है वह उनकी ही इच्छा से होता है, क्योंकी हम उनकी इच्छा के विपरीत कुछ कर नहीं सकते। जो भी हो रहा है, वह ईश्वर की ही इच्छा है यह 'भली भाँती समझकर' हमारा मन भूतकाल के लिए खेद और भविष्य की चिंता छोड़कर ज्ञान में ही स्थिर हो इसीलिए साधना है। क्योंकी तर्क और विचार से हम केवल ईश्वर की शक्ति को 'मान' सकते हैं, लेकिन उसका अनुभव नहीं कर सकते।
कालस्वरूपिणी और कालभयविनाशिनी: मृत्यु के समय जीवनभर जिस देह से प्रेम किया उसे और उसके साथ कमाया सब कुछ रिश्ते, नाते, संपत्ति सब कुछ एक पल में यहीं छोड़कर जाना होता है। उस क्षण सब कुछ न चाहते हुए भी छोड़कर जाने का जो दुःख होता है, वह जिन्दगी का सबसे बड़ा दुःख होता है। सारी साधना का और तपस्या का फल यही होता है कि अंतिम क्षणों का दुःख मन को स्पर्श भी नहीं कर पाता। महाकाली स्वयं जन्म-मृत्यु का कारण कालस्वरूपिणी है, उनकी आराधना करने पर काल का भय भक्त को कदापि नहीं रह सकता।
सद्गुरुरूपा और शिष्यकल्याणकारिणी: सद्गुरु अपने ज्ञान, तपस्या और योग की शक्ति से, अपनी कृपा से ही शिष्य के जीवन का कल्याण करते हैं। सद्गुरु का शिष्य से रिश्ता माता का अपने बच्चे के साथ होता है, वैसा ही होता है। शिष्य की साधना की समस्याएँ, प्रगति में बाधक बननेवाले कारण इन सबका निवारण सद्गुरु करते हैं। पर यह करते समय उनका यह भी ध्यान होता है कि शिष्य को कहीं जरा भी तकलीफ ना हो। यह बात मैं विशेषरूपसे मेरे गुरुदेव परम पूजनीय नारायणकाका महाराज के लिए कहना चाहती हूँ। वे कभी किसी बात के लिए डांटते नहीं थे, क्रोधित नहीं होते थे। फिर भी अगर कहीं विचारों की दिशा सही ना हो तो वे केवल बोलते बोलते ही क्या सही होना चाहिए यह कह देते थे। उनका एक शब्द भी शिष्य के लिए जीवन परिवर्तन करानेवाला होता था। वे कभी किसी को अपने ऊपर निर्भर नहीं रखते थे, ना अपने विचार थोपते थें। शिष्य का अपने व्यक्तित्व और विचारस्वातंत्र्य के अनुसार ही पूर्ण विकास हो इस बात पर उनका हमेशा ध्यान रहता था। हमारे गुरुदेव ने हमें शक्तिपात से कृतार्थ किया है, सद्गुरु माँ शक्ति से भिन्न नहीं है।
महायोगरूपा और कुण्डलिनीजीवनस्वामिनी: महायोग तो शक्तिद्वारा ही स्वयं अपने स्वरूप की ही उपासना है। इसलिए माँ जगदम्बा तो महायोगरूपा ही हैं। कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने के बाद सुषुम्ना से उनका प्रवास ऊपर की ओर तब तक होता रहता है, जब तक वे शिष्य को सारे बन्धनों से मुक्त न कर दे। परम पूज्य श्री गुळवणी महाराज ने यह कहा था कि जब तक अपना परमध्येय मुक्ति तक वह पहुँच न जाए, कुण्डलिनी स्वयं ही प्रयासरत रहती है। महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराजजी ने भी कहा था कि इस शक्तिका एक बार पात होने पर वह भगवद्धाम में पहुंचाएं बिना नहीं रहती। एक बार जागृत हुई कुण्डलिनी शक्ति किसी भी कारण से अपना कार्य बंद नहीं करती। जो शरीर में कुण्डलिनी नाम से विराजमान हैं, वहीँ सारे जगत में जगत्शक्ति बनकर कार्यरत रहती है। कुण्डलिनी उपासक के जीवन का हर क्षण रक्षण करती हैं, इसलिए वह उपासक के जीवन की स्वामिनी है।
कुण्डलिनी विषय के सन्दर्भ में: कुण्डलिनी के विषय में व्यक्त विचार और मत, महायोग की गुरुपरंपरा के अनुसार हैं। कुण्डलिनी जाग्रति के नाम से काफी लोग अलग अलग मत व्यक्त करते हैं। इसके अलावा कुण्डलिनी जागृती के विषय में बहुत से लोगों ने अपने संशोधन और विचार रखे हैं। कुण्डलिनी और षट्चक्रो को पूरी तरह से न माननेवाले मत भी है। पाठकों से निवेदन है कि मेरा सन्दर्भ सिर्फ महायोग की गुरुपरंपरा से ही सम्बंधित है। यहाँ ध्यान देनेयोग्य बात यह भी है कि मैंने साधक की दृष्टि से ही लिखा है, गुरु, धर्मोपदेशक, या धार्मिक नेताओं की दृष्टि से नहीं; मेरी उतनी योग्यता भी नहीं है। मेरा जीवन महायोग से कृतार्थ हुआ है, इसलिए इस विषय में पूरे विश्वास के साथ मैं लिख सकती हूँ, लेकिन कुण्डलिनी या योग के नाम पर दुनिया में जो संस्थाएं, चलती है उसके बारे में क्या, कैसे, सही गलत इस सबके बारे में लिखने का यहाँ कोई सन्दर्भ नहीं है।
माताजी की कृपा से लिख पाई हूँ, लेकिन बीचमें अपने अहंकार के कारण कुछ शास्त्रविपरीत आया हो तो इसके लिए आप सब मुझे क्षमा करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है।
यह स्तोत्र संस्कृत में: