वेदना: क्या हम वास्तव में देवी माँ की पूजा करते हैं?

आज नवरात्रि के आंठवे दिन नारी के रूप में विराजमान भगवती माँ और महिला समस्याओं पर एक वेदना कल स्त्री के रूप में विराजमान भगवती पर अंग्रेजी में कविता Do we really worship Devi Maa? लिखी थी, उसीका यह हिंदी रूपांतरण है देवी माँ की पूजा में हमारी प्रमुखता माँ की मूर्ती रूप में अर्चना, उसके संबंधी विधीविधान और उपवास  आदि पर होती है लेकिन, हमारी भक्ति तभी पूर्ण होगी जब हम महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, भ्रूणहत्या और स्त्री-पुरुष समान अधिकारों के लिए निश्चित ध्येय के साथ ठोस काम आरम्भ नहीं करते

यह केवल कविता नहीं ह्रदय की वेदना है


क्या हम वास्तव में देवी माँ की पूजा करते हैं?
किस रूप में?
किस किस रूप में?
माँ, बहन, दोस्त, बेटी, पत्नी, एक स्त्री?
क्या हम उसकी पूजा करते हैं?
क्या हम स्त्रीत्व की पूजा करते हैं?
गर्भ में ही उसकी हत्या हो जाती है
अगर जीने भी दिया उसे
तो उसकी जिन्दगी  घोंट दी जाती है

उसका बचपन,
उसका यौवन,
उसके सपने
उसका प्यार ......
हाँ, उसका प्यार भी...
वो न तो खुद से प्यार कर सकती है
न किसी और से ....
अपनी मर्जी से सांस भी नहीं ले सकती
जिन्दगी मिली तो भी घुटन बना दी जाती है

कभी उससे प्यार के नाम पर,
कभी  उसकी सुरक्षा  के नाम पर,
कभी किसी अनजानी इज्जत के नाम पर,

प्यार से
या                
क्रौर्य से
या प्यारभरे क्रौर्य से
उसकी जिन्दगी का गला घोट दिया जाता है

कभी परम्पराओं के नाम पर,
तो कभी आधुनिकता के नाम पर,
उसकी जिन्दगी का गला घोट दिया जाता है

उसे आंसू बहाने की भी आझादी नहीं
उसके आंसू तो नाटक होते हैं
उसकी योग्यता
उसकी बुद्धि, उसका कर्तृत्व, उसका नेतृत्व नहीं होती
न ही उसका मातृत्व
बस....किसी से शादी होना
किसी को जन्म देना ...
यही उसकी योग्यता की परख होती है...
यही उसके 'कर्तृत्व का अंत' होता है
हाँ, उसके लिए यही सही बताया जाता है

उसपर अत्याचार होते हैं
उसपर बलात्कार होते हैं
उसकी हत्या भी हो जाती है
और फिर...........................
दोषी भी उसेही बनाया जाता है
"आझाद घूमेगी तो यही होगा"
"उसने कपडे ही ऐसे पहने होंगे"
"शरीफ लड़कियां अकेली घुमती ही नहीं"
"उसका तो चरित्र ही ठीक नहीं होगा"
"आखिर बेचारा बलात्कारी संयम भी तो कैसे रखे!,
वो आकर्षक क्यों लगती है?"
"उसका स्त्रीत्व दिखे ऐसे कपडें क्यों पहनती है वो?"
कोई पूछे,
"और बच्चीयों का क्या अपराध?"
"औरत है वो
उसके साथ ऐसाही होगा ..."

उसेही दोषी बनाया जाता है
पीड़ित होने के लिए
पीड़ित होकर आवाज उठाने के लिए
नारी होने के लिए
उसपर नियंत्रण पाने की किसी की अनियंत्रित वासना के लिए
उसे ही दोषी बनाया जाता है

उसका चरित्र कैसा है?
क्या उसे पवित्र माना जाए?
क्या वह सती है?
उसका निर्णय किया जाता है
हर समय!
उसकी परीक्षा होती है
समाज में बैठे हुए
स्वयंघोषित, निरुद्योगी समाज के न्यायाधीशों द्वारा
उसके चरित्र की हर पल परीक्षा होती रहती है
'चारित्र्यहीन' लोगों द्वारा
उन्होंने घोषित ही किया है,
उनका कर्तव्य है
हर नारी के चरित्र पर निर्णय देना
स्त्रीत्व से भयभीत, विचलित, चारित्र्यहीन
स्वयंघोषित, निरुद्योगी चरित्र  के ठेकेदारों द्वारा

और फिर...
उसको सजा भी मिलती है
उसके अपराध के लिए
नारी होने के अपराध के लिए

वो क्या पहनती है
कैसे चलती है
कितना मेकअप करती है
उसका शरीर कैसा है
उसका सौन्दर्य कैसा है
हर बात की परीक्षा ..
हर किसी को करनी ही है
क्योंकी उसका चरित्र जो बताना है
उसको सजा मिले या नहीं
इसपर निर्णय जो करना है

उसका प्रेम,
उसका त्याग,
अपनों के लिए उसकी अविरत तपस्या,
सब कुछ भूला दिया जाता है

हाँ, यह तो उसका कर्तव्य है
वो तो कभी शिकायत नहीं करेगी
"उसे शिकायत करनी ही नहीं चाहिए"
" उसका फर्ज है"
स्वयंघोषित सामाजिक न्यायकर्ता
बार बार याद दिलाते हैं..

याद दिलाना उनका पसंदीदा आसान  फर्ज है
कहीं वो पिंजरे से उड़ ना जाए
कहीं वो आझाद न हो जाए
कहीं वो चरित्र के ठेकेदारों की सत्ता ना उखाड़ फेंके
डर लगा रहता है...
स्त्री तो जी लेगी हर हाल में
लेकिन उन ठेकेदारों का क्या होगा...
और कोई काम तो कभी आया नहीं..
बस........
स्त्रीका  चरित्रनिर्धारण इसीमें महारत है ...

उसे सोचने की आझादी नहीं,
उसे चुनने की आझादी नहीं,
उसे बोलने की आझादी नहीं,
उसे रोने तक की आझादी नहीं,
उसे खुली हवा में सांस लेने की आझादी नहीं
उसे अपने प्यार से प्यार करने की आझादी नहीं
प्यार भी करना है
तो किसी और के बनाए
नियमों से,
जिन्दगी से,
मर्जी से
जबरदस्ती प्यार करना है ...
वो नहीं चुन सकती अपनी चाहत
शिक्षा में
नौकरी में
जिन्दगी में
क्यों?
क्योंकी वो औरत है!

उसकी घुटन को भी झुटला दिया जाता है,
उसके दर्द को भी नकारा जाता है,
उसके अस्तित्व को ही कुचल दिया जाता है,
क्यों?
क्योंकी वो औरत है!

औरत पूर्ण मनुष्य है
उसमें
ह्रदय है,
मस्तिष्क है,
वो सोच सकती है,
वो चुन सकती है,
वो नकार सकती है,
वो संभाल सकती है,
वो खुदको और औरों को सुधार सकती है
वो निर्णय ले सकती है

क्या इतनी भी समझदारी की उम्मीद करना ज्यादा है?
किस तरह की इक्कीसवी सदी है फिर यह?

वो अपने परिवार की पूजा करती है,
वो अपने प्यार की पूजा करती है,
वो अपने कर्तव्यों की पूजा करती है,
वो अपने दायित्व की पूजा करती है,
वो अपने काम की पूजा  करती है,
फिर क्यों?

क्या हम  उसकी पूजा करते हैं?
क्या हमें कभी स्त्री के रूप में मिलनेवाली देवी नजर आती है?
क्या  हम स्त्रीत्व का सम्मान कर सकते हैं?
क्या हम 'वास्तव' में देवी माँ की पूजा कर सकते हैं?


नवरात्री  के प्रथम आठ दिनों में लिखी प्रार्थना और स्तोत्र: