कल हिंदी दिवस संपन्न हुआ। हिंदी भाषा के विषय पर
कुछ विचार और प्रश्न आपसे बाँट रही हूँ।
हिंदी में संस्कृत शब्द आएं तो इसे अनुचित समझा
जाता है, क्योंकी माना जाता है कि हिंदी में संस्कृत शब्द कभी नहीं थे। हिंदी में फारसी और अरबी शब्द हो तो उसे हिन्दुस्तानी कहा जाता
है।संस्कृत या अन्य स्थानीय भाषाओं का भी इसमें अंतर्भाव है ऐसा माना जाता है। लेकिन, संस्कृत शब्दों का प्रयोग दिखे तो विवाद भी उत्पन्न होता है। मैं इस विषय के आरम्भ में यह बताना चाहूंगी कि मुझे उर्दू या उससे भी अधिक अरबी और
फ़ारसी बहुत अच्छी लगती है। परन्तु, जो मुद्दा भाषा का है, उसमें और भी कुछ अंतर्निहित
मुद्दे लगते हैं जो चर्चा में नहीं आते, इसलिए उनकी चर्चा हिंदी के विषय के साथ ही
करना मुझे आवश्यक लगता है।
मैंने जो हिंदी सीखी थी
वह हिंदी ही थी। उसमें उर्दू शब्द बहुत अधिक थे, ऐसा मुझे स्मरण नहीं। पिछले कुछ
वर्षों में उर्दू शब्दों का प्रयोग मीडिया में भी बढ़ता दिखा है। मुझे प्रश्न है,
बोलचाल की भाषा मीडिया में या लेखन में होना चाहिए?
पढ़ी हुई भाषा का प्रयोग बोलचाल में आता है या बोलचाल की भाषा लेखन
में आती है – इन दोनों में पहले क्या होता है?
आपको क्या लगता है?
मेरे व्यक्तिगत अनुभव की बात करू तो मैंने हिंदी भाषी
मित्रों को हिंदी में ही बोलते, लिखते, सुना/पढ़ा है। हिंदी में बढ़ती उर्दू क्यों? क्या
यह स्वाभाविकही हो रहा है ऐसा मानना उचित होगा? इसका उत्तर मैं आप सबपर ही छोडती
हूँ।
दूसरा मुद्दा आता है, हिंदी में संस्कृत के
प्रयोग का। इस मुद्दे को कट्टरता के दृष्टी से देखा जाता है। इसमें एक कारण मुझे नजर
आता है, वह जातिनिहाय नफरत का भ्रम जिसने संस्कृत को जातियों में सीमित कर दिया,
भ्रम, जैसे संस्कृत केवल उच्चवर्णीय लोगों की भाषा है। ऐसे भ्रम क्या लोगों के
मनमें पहलेसे ही होते हैं या बाहरसे प्रचारित किये जाते हैं, जिन्हें हम ‘यह
तो हमेशासे ऐसा ही है’ ऐसा मान बैठते हैं?
आजकल एक और प्रचलन दीखता है, भारतवासियों को जिस
बात के लिए अपने आप पर गर्व हो, वह भारत की मूलतः नहीं है यह प्रचारित करना। आर्य
बाहर से आए, यह (प्रचारित) विवाद बहुत पुराना है। संस्कृत का मूल भी भारत के बाहर
ही है ऐसा कुछ भी पढने में आया। कुछ लोगों ने तो योग का मूल पाकिस्तान में है यह
भी कह दिया क्योंकी उनका कहना था कि महर्षी पतंजली का जन्म पाकिस्तान में हुआ था। लेकिन, पाकिस्तान का जन्म किस राष्ट्र को बुरी तरह की हिंसा के साथ तोड़कर हुआ था
यह बात बोलना कट्टरता समझी जाएगी।
क्या आपको इन सब बातों में कुछ समानता नजर आती
है?
अस्तित्व पर आघात करते रहना – बार-बार! यह सिर्फ
संस्कृत का विषय नहीं लगता। संस्कृत, भारतीय संस्कृति, भारतीय योगसाधना, गौरवशाली इतिहास
इन सबसे हमारा अस्तित्व बनता है। हिन्दू त्यौहारों का मजाक उड़ाना, यह सब
अंधश्रद्धा है ऐसा प्रचारित करना, इस सबकी हमें अब आदत हो चुकी है। पर क्या आपने
इस बात को देखा कि विशिष्ट धर्म से जुडी परम्पराओं के लिए ‘आस्था’ ‘श्रद्धा’
जैसे शब्दों का प्रचार करके उन्हें श्रद्धेय बताया जाता है? मांस विक्री पर
पर्युषण पर्व में प्रतिबन्ध के निमित्त जो विवाद हुआ, उससे यह बात सामने आई कि
धर्मनिरपेक्षता का प्रयोग भारत में धर्मसापेक्ष है।
‘एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति इसलिए एक राष्ट्र’,
हिंदुत्ववादियों के इस विचार को कितने विद्वेष से देखा जाता है यह तो हमारी आँखों
के सामने है। लेकिन यही तर्क किसी अन्य धर्म के लिए लगाना धर्मनिरपेक्ष लोगों के
लिए स्वभावतः उचित लगता है। यह ‘स्वभावत:’ आनेवाला विद्वेष किससे है? किसके
अस्तित्व से है? आपको नहीं लगता कि इस तरह का दोहरापन धर्मनिरपेक्षता को झूठा
सिद्ध कर रहा है? धीरे-धीरे रोज भारत, भारत की संस्कृती, भाषा, इतिहास के बारे में
(उपरसे सौम्य दिखनेवाले) शब्दों के जाल से नफरत फैलाते रहना यह देखकर क्या कोई भी
विचारी व्यक्ती उदारमतवाद और धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न खड़े नहीं करेगा? लेकिन फिर केवल
प्रश्न उपस्थित करने पर हिन्दू असहिष्णु हैं, यह प्रचारित करने के लिए नए विषय बुनना आरंभ हो जाता है।
आपने एक तरह का दबाव - धर्मनिरपेक्षता साबित करने के लिए - हमेशा देखा होगा। आप चाहे जितना सर्वधर्मसमभाव से जिए, चाहे जितना आदर, सम्मान, और सद्भावना, सबके प्रति समानभाव से रखे, किसी भी छोटीसी असम्बद्ध बात से आपको हिन्दू कट्टर ठहराया जा सकता है। आपको हर समय धर्मनिरपेक्षता की परीक्षा देने के लिए तैयार ही रहना पड़ता है और परीक्षा लेनेवालों के हिसाब से कुछ गलत हो गया तो आपको उनकी नफरत और कटुतापूर्ण व्यवहार भी सहना पड़ता है। आजकल तो शाकाहारी होना या संस्कृत भाषा से प्रेम होना भी आपको धर्मनिरपेक्षता की परीक्षा में फेल कर सकता है इतना उदारमतवाद बढ़ गया है।
अन्तमें हिंदी के विषय में एक और प्रश्न। संस्कृत भारत की भाषा है, उर्दू में अरबी और फ़ारसी शब्द बहुत हैं, और यह भाषाएँ हमारे लिए उतनी ही मानसिक दासता की प्रतिक होनी चाहिए जितनी अंग्रेजी है। पर ऐसा हमें क्यों नहीं बताया जाता?
जब भी हिंदी का विषय आता है तब केवल हिंग्लिश का (स्वयं हिंग्लिश बोलनेवालों से) ही मजाक क्यों उड़ाया जाता है?
क्या यह भी दोहरापन नहीं है?
कहीं संस्कृत के अधिक प्रयोग में अस्मिता जागृत
होने का भय तो नहीं है?
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नमन हे हिंदी भाषा
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